Sunday, September 26, 2010

तुम बस गुज़रते गए

सूरज डूबता जा रहा था और साथ मेरी उम्मीदें भी
अँधेरा बहार जितना घना हो रहा था
उससे कहीं ज्यादा मुझे अपने में समेट रही थी
और लव्ज़ अब मुझसे कहीं खोने लगे थे
आंसू जो अब बहने लगे थे
तो मुझको यकीं नहीं था की ये कभी थामेंगे
दिल जिसने अब धड़कने से इंकार कर दिया था
क्योंकि उसके एक हिस्से में तुम रहा करती थी
साँसें जो अब भी मेरे शारीर से गुज़र रही थी
पर फिर भी सब कुछ बेजान सा महसूस हो रहा था
नज़रें इधर उधर कुछ तलाश रही थी
जबकि मुझे मालूम था की कुछ बाकी नहीं बचा है
वक़्त थम सा गया था और आगे बढ़ने से इनकार कर रहा था
और मैं, बस पीछे मुड़कर तुम्हे जाते हुए देख रहा था
और, तुमने एक बार भी पलटकर नहीं देखा...

तुम बस गुज़रते गए और यूँही मैं भी गुज़र गया

यूँही अक्सर

यूँही अक्सर
यूँही अक्सर रात में जब ख़ामोशी का दायरा बढ़ने लगता है
और तुम्हारी यादें मुझमे सिमटने लगती हैं
मैं बिस्तर पर करवटे बदलता तुम्हारे ख्याल में खो जाता हूँ
तभी कुछ शर्माती कुछ घबराती मेरे सिरहाने से गुज़रती हुई
तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में आ पड़ती है
मैं चोंक जाता हूँ और इधर उधर तुम्हे खोजता हूँ
पर ख़ामोशी के सिवाय और कुछ हाथ नहीं पड़ता है
मैं फिर बिस्तर पर लेट जाता हूँ और
तुम्हारी यादें मुझे अपने में समेट लेती हैं
फिर तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में आ पड़ती है
ये आवाज़ मुझे एहसास दिलाती है की तुम मेरे करीब हो, मेरे नज़दीक हो
मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूँ
चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है, लगता है मैं भी खो गया हूँ
तुम्हारी आवाज़ जो अब तक मेरे कानों में गूंज रही थी
अब मेरे ज़हन में उतर आई है
और खुद अपना अक्स ढूंढ़ रही है
अँधेरा अब धीरे धीरे छटने लगा है
सब कुछ साफ़ होने लगा है, देखो तुम तो यहीं हो
मैं भी कितना नादान हूँ इस सच से अनजान हूँ
की तुम मेरा हिस्सा ही तो हो
हर पल गुज़रता हूँ तुम्हारे साथ
तुम मेरा एक किस्सा ही तो हो

Friday, June 11, 2010

Muhe vishwaas hai khud par..

Mujhe vishwaas hai khud par..
ek din udungi mein aasmaan par,
ek din baadalon pe paon rakh kar chhu lungi sitaron ko,
ek din khelungi mein chand ko football samajhkar,
ek din suraj ko apni roshni dikhaungi
ek din mein khud apni duniya banaungi..

haan mujhe vishwaas hai khud par..
ek din mein bhi daudungi is bheed me sabko peechhe chodte hue,
ek din mein dekhungi, us building ke top floor se neeche aur duniya choti si lagegi,
ek din mera naam bhi logon ki zubaan par hoga,
ek din ye duniya mere ishaaron pe chalegi,
ek din me bas kahungi aur ye saari duniya sunegi..

haan mujhe vishwaas hai khud par..
ek din zindagi ke portrait me rang bharungi apne mutabik,
ek din me samay ko rok lungi aur phir usme chabi bharke khud samay ko gati dungi,
ek din meri dhun par chidiya chehchahayegi, jharne gayenge mere geet aur koyal gungunayegi,
ek din me is duniya se dard aur takleef mita dungi aur sirf hansi aur khushi ko jagah dungi,
ek din me beh jaungi baarish ki tarah aur bikhar jaungi indradhanush banke..

Friday, June 4, 2010

कुछ इस तरह गुजारता हूँ

कुछ इस तरह गुजारता हूँ में अपनी रातें
आँखों में तेरी तस्वीर लिए करता हूँ दीवारों से बातें

बंद कर लिए हैं तमाम खिड़की और दरवाज़े फिर भी
ना जाने कौन से रस्ते से तेरे ख्याल हैं आते जाते
आँखों में तेरी तस्वीर लिए करता हूँ दीवारों से बातें

तुझको मिलने से पहले में चैन से सोता था, पर अब
खुली आँखों में भी तेरे ख्वाब हैं आते जाते
आँखों में तेरी तस्वीर लिए करता हूँ दीवारों से बातें

तेरी अदाओं का होने लगा है ये कैसा असर मुझपर
तेरी हंसी हंसाती है मुझको, तेरे आंसू हैं मुझे रुलाते
आँखों में तेरी तस्वीर लिए करता हूँ दीवारों से बातें

चल जा रहा हूँ

चला जा रहा हूँ बिना किसी मंजिल के
ना कारवां है ना कोई साथी है मेरा
अकेला रह गया हूँ इस दुनिया की महफ़िल में

अगर कोई साथ है तो कुछ यादें
कुछ बीते हुए पल, जो आज बन चुके हैं एक कल
पर फिर भी शामिल हैं कहीं न कहीं मेरे वजूद में

बना नहीं पाया किसी को अपना
शायद मुझमे ही कोई कमी होगी
या फिर शायद किस्मत की भी यही मंज़ूरी रही होगी
की तनहा रहू में सदा हर मुश्किल में

चला जा रहा हूँ बिना किसी मंजिल के
ना कारवां है ना कोई साथी है मेरा
अकेला रह गया हूँ इस दुनिया की महफ़िल में

Energy

पड़ोस से बर्तनों की आवाज़ आई
हमें पता था हो रही है पडोसी की पिटाई
न जाने क्या बात है, आधी रात है
और मौसम भी अच्छा है
पर हमारे श्रीमान पडोसी के बदन पर सिर्फ VIP का एक कच्छा है
अवश्य ही हुई है जम के पिटाई
तभी तो पैंट और शर्ट भी नज़र नहीं आई
बेचारा हफ्ते में एक बार तो पिटता ही है
पत्नी का मूड ख़राब हो तो दूसरी तीसरी बार भी पिट जाता है
ना जाने इतनी एनेर्जी कहाँ से लाता है, ना जाने इतनी एनेर्जी कहाँ से लाता है

मौन

मौन है अम्बर मौन धरा है विचलित मन भी मौन पड़ा है
प्राण वायु अवरोधित सी है, ह्रदय ध्वनि भी मौन बनी है
मौन है दृष्टि, मौन है सृष्टि, मौन हूँ मैं भी कितनी संतुष्टि
जरा धरा पर अविचलित सी अचेतन सी मौन पड़ी है
श्वेत वस्त्र से आच्छादित हो मृत्यु शय्या में लीन पड़ी है
दूर क्षितिज से कौन है वो जो अपने हाथ फैलाता है
मौन ध्वनि में कौन है वो जो अपने पास बुलाता है

मौन स्वयं को देख रहा में इस अनुभूति से विस्मित होकर
कौन है वो और कौन हूँ मैं इस दुविधा से विचलित होकर
मात पिता, मित्र, सम्बन्धी जन शोकाकुल मिलाप कर रहे
अश्रु धरा बह रही सभी की, देख मुझे विलाप कर रहे
दौड़ रहा इधर उधर मैं, सबके सम्मुख करह रहा
मैं जीवित हूँ, मैं जीवित हूँ, देखो तुम्हे मैं बता रहा
माँ मेरी तू तो मुझे सुन, क्यों तुने भी मुह फेर लिया
कोई नहीं मुझे श्रवण कर रहा, एक शुन्य ने जैसे घेर लिया

रात यु ही जगती रही

रात यूही जगती रही, मैं यूही सोता रहा
चाँद भी बादलों की आगोश में हर पल खोता रहा

खुद ही अपने आप से बातें तुम्हारी करके मैं
खुद ही अपने आप में हैरान मैं होता रहा
और चाँद भी बादलों की आगोश में हर पल खोता रहा

ना थी तुम मुझसे अलग और ना ही मैं तुमसे जुदा
बेवजह किस बात पर फिर में यूही रोता रहा
और चाँद भी बादलों की आगोश में हर पल खोता रहा

शामे तन्हाई जो तुम्हारी याद का बन गयी सबब
इन्ही तनहाइयों में न जाने कितने ख्वाब संजोता रहा
और चाँद भी बादलों की आगोश में हर पल खोता रहा

शायद

रात की ख़ामोशी, गुमसुम अँधेरा चारों तरफ
और मैं तनहा मानो खुद को ही ढूंढ़ रहा हूँ
ऐसा लगता है मैं अपना वजूद ही खो बैठा हूँ
खोज रहा हूँ मैं खुद को ही खुद से अलग होकर
ये अँधेरा एहसास दिलाता है मुझे
जैसे मैं खुद को ही नहीं जानता
खुद अपने आप को नहीं पहचानता
बड़ा ताज्जुब होता है मुझे और मैं खुद से ही पूछ बैठता हूँ की मैं कौन हूँ
मैं कौन हूँ, क्या चाहता हूँ मैं, क्या उम्मीदें हैं मेरी
किस मंजिल की तलाश है मुझे
और ऐसे ही कई सैकड़ों सवाल
इन्ही सवालों का जवाब ढूंढते ढूंढते
कहीं से एक रौशनी उगने लगी है
लग रहा है जैसे सुबह हो गयी है
आज रात मेरी खुद से कुछ जान पहचान हुई
कल रात फिर कुछ और सवाल होंगे और कुछ जवाब
और ये जद्दो जहद युही चलती रहेगी उम्र भर
शायद ज़िन्दगी रहते मैं खुद को जान पाऊँ , पहचान पाऊँ
शायद॥ शायद॥

तलाश है..

तलाश है मूझे एक नयी ज़मीन की
तलाश है मूझे एक नेइ जहाँ की
तलाश है मूझे एक ऐसे आसमान की
जहाँ ज़िन्दगी के दायरे से बाहर निकलकर
में जी सकू
मैं जी सकू अपनी शर्तों पर, मैं जी सकू अपने आधारों पर
मैं उड़ सकू खुले आकाश में पंख फैलाये बिना किसी बाधा के
मैं बह सकू नीले सागर की लहरों पर उसकी अथाह गहराईयों तक

हाँ मैं जीना चाहता हूँ
हाँ मैं जीना चाहता हूँ, इसलिए नहीं की मूझे मौत का डर है
बल्कि मैं जानता हूँ की मौत खुद बेखबर है
की ज़िन्दगी को मौत आती है
जबकि सच तो ये है की मौत स्वयं अपनी मौत का जशन मनाती है

हाँ मैं जीना चाहता हूँ
हाँ मैं जीना चाहता हूँ, इसलिए नहीं की मूझे जीना है
बल्कि इसलिए की ज़िन्दगी को एहसास हो
की कोई जीया है; कोई जीया है
एक ऐसी ज़िन्दगी जिसके आगे मौत नाकाम है
क्योंकि जीना इसी का नाम है॥

Zindagi ki daud me shayad jeena bhool gaya hoon..

ज़िन्दगी की दौड़ में शायद जीना भूल गया हूँ...
भूल गया हूँ की माँ आज भी खाने पर मेरा इंतज़ार करती है
भूल गया हूँ की पिताजी आज भी अक्सर मेरे मनपसंद समोसे शाम को ले आया करते हैं
भूल गया हूँ की आज भाई का दसवी का पहला इम्तेहान था
भूल गया हूँ की दादी के चश्मे पिछले एक हफ्ते से टूटे हुए हैं
भूल गया हूँ की दादा की दवाई का आज आखिरी डोज़ बाकी बचा है

ज़िन्दगी की दौड़ में शायद जीना भूल गया हूँ...
भूल गया हूँ दोस्तों के साथ गली में क्रिकेट खेलना
भूल गया हूँ एक गलत शोट से कांच टूट जाने पर गुप्ता अंकल का पूरी गली में भगाना
भूल गया हूँ पाकिस्तान से हर क्रिकेट मैच जीतने पर पूरी गली में नाचना और पटाखे बजाना
भूल गया हूँ स्कूल न जाने के लिए झूठे पेट दर्द के बहाने बनाना
भूल गया हूँ स्कूल बंक मार के मूवीज जाना

ज़िन्दगी की दौड़ में शायद जीना भूल गया हूँ...
भूल गया हूँ की दीवाली में दीये जलाने में मुझे कितना मज़ा आता था
भूल गया हूँ की होली के रंगों से खेलने के लिए सारा साल यूं ही गुज़र जाता था
भूल गया हूँ की दीदी अब भी रक्षा बंधन पर राखी भेजना नहीं भूलती
भूल गया हूँ की नाना नानी अब भी छुट्टियों पर मेरे आने का इंतज़ार करते हैं
भूल गया हूँ की नए साल पर मोहल्ले के लोग अब भी हुडदुंग करते हैं

ज़िन्दगी की दौड़ में शायद जीना भूल गया हूँ...