दर्द भी सेहती है तू और
ख़ामोश भी रहती है,
चेहरे से जताती भी नहीं और
तन्हाइयों में रोती है।
बांध के गठरी में ख़्वाबों को
दफ़्न कर दिया तुमने,
अब रात के दरीचे पर
बेजान सी सोती है।
ना कोई हमसफ़र तेरा
ना है हमनवां कोई,
फिर ख़ुद से ख़फ़ा होकर क्यों
ख़ुद को सज़ा देती है।
ख़ामोश भी रहती है,
चेहरे से जताती भी नहीं और
तन्हाइयों में रोती है।
बांध के गठरी में ख़्वाबों को
दफ़्न कर दिया तुमने,
अब रात के दरीचे पर
बेजान सी सोती है।
ना कोई हमसफ़र तेरा
ना है हमनवां कोई,
फिर ख़ुद से ख़फ़ा होकर क्यों
ख़ुद को सज़ा देती है।