Friday, June 4, 2010

शायद

रात की ख़ामोशी, गुमसुम अँधेरा चारों तरफ
और मैं तनहा मानो खुद को ही ढूंढ़ रहा हूँ
ऐसा लगता है मैं अपना वजूद ही खो बैठा हूँ
खोज रहा हूँ मैं खुद को ही खुद से अलग होकर
ये अँधेरा एहसास दिलाता है मुझे
जैसे मैं खुद को ही नहीं जानता
खुद अपने आप को नहीं पहचानता
बड़ा ताज्जुब होता है मुझे और मैं खुद से ही पूछ बैठता हूँ की मैं कौन हूँ
मैं कौन हूँ, क्या चाहता हूँ मैं, क्या उम्मीदें हैं मेरी
किस मंजिल की तलाश है मुझे
और ऐसे ही कई सैकड़ों सवाल
इन्ही सवालों का जवाब ढूंढते ढूंढते
कहीं से एक रौशनी उगने लगी है
लग रहा है जैसे सुबह हो गयी है
आज रात मेरी खुद से कुछ जान पहचान हुई
कल रात फिर कुछ और सवाल होंगे और कुछ जवाब
और ये जद्दो जहद युही चलती रहेगी उम्र भर
शायद ज़िन्दगी रहते मैं खुद को जान पाऊँ , पहचान पाऊँ
शायद॥ शायद॥

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