Sunday, September 26, 2010

यूँही अक्सर

यूँही अक्सर
यूँही अक्सर रात में जब ख़ामोशी का दायरा बढ़ने लगता है
और तुम्हारी यादें मुझमे सिमटने लगती हैं
मैं बिस्तर पर करवटे बदलता तुम्हारे ख्याल में खो जाता हूँ
तभी कुछ शर्माती कुछ घबराती मेरे सिरहाने से गुज़रती हुई
तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में आ पड़ती है
मैं चोंक जाता हूँ और इधर उधर तुम्हे खोजता हूँ
पर ख़ामोशी के सिवाय और कुछ हाथ नहीं पड़ता है
मैं फिर बिस्तर पर लेट जाता हूँ और
तुम्हारी यादें मुझे अपने में समेट लेती हैं
फिर तुम्हारी आवाज़ मेरे कानों में आ पड़ती है
ये आवाज़ मुझे एहसास दिलाती है की तुम मेरे करीब हो, मेरे नज़दीक हो
मैं अपनी आँखें बंद कर लेता हूँ
चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा है, लगता है मैं भी खो गया हूँ
तुम्हारी आवाज़ जो अब तक मेरे कानों में गूंज रही थी
अब मेरे ज़हन में उतर आई है
और खुद अपना अक्स ढूंढ़ रही है
अँधेरा अब धीरे धीरे छटने लगा है
सब कुछ साफ़ होने लगा है, देखो तुम तो यहीं हो
मैं भी कितना नादान हूँ इस सच से अनजान हूँ
की तुम मेरा हिस्सा ही तो हो
हर पल गुज़रता हूँ तुम्हारे साथ
तुम मेरा एक किस्सा ही तो हो

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